सोमवार, 26 सितंबर 2011

मेरे १२५ करोड़ बाप

आदरणीय अन्ना अंकल,
कभी कभी मेरे मन में ख्याल आता है कि सरकार मेरी मां जैसी है.दे‘श  के 125 करोड लोगों को  पिता समान मानने को मन तो नहीं करता पर लोग एहसास करा ही देते हैं कि वे मेरे पिता समान ही नहीं बल्कि हैं ही मेरे बाप
अंकल जी,मेरे पिता कुछ ज्यादा ही मिलनसार हैं इसलिए हर ‘शाम  घर लौटते समय उनके साथ एक दो दोस्त ज़रूर ही चले आते हैं मेरी मां इस बात को जानती है और एक्स्ट्रा खाना तैयार रखती है। लेकिन होता यह है कि हम ज्यों ही खाना खाने बैठते हैं,उनका एकाध दोस्त और आ धमकता है ।मां दाल में पानी मिलाकर तेजी से रोटियां सेंकने जुट जाती है, अन्नपूर्णा का धर्म निभाते हुए स्वाभाविक है कि थोडी देर हो जाती है
   लेकिन अंकल जी, इतनी देर में पापा चिल्लाने लग जाते हैं ”बेवकूफ औरत,तुम दिन भर खाली पडी करती क्या हो? अरे अतिथी तो देव होते हैं,‘शास्त्रों  तक में लिखा है। मेरा घर सोने की चिडिया है,फिर भी हम भूखे? सुबह उठते ही तुम्हे तलाक नहीं दिया तो मेरा नाम भी राम औतार नहीं“
तलाक का नाम आते ही विपक्ष,यानि हमारे सामने वाले घर से जवान कन्या जिसका कहीं रिश्ता नहीं हो रहा,चीनी मांगने के बहाने पिताजी को ‘शक्ल दिखाने आ जाती है कि राम दुलारी को तलाक दो तो हमारा ख्याल ज़रूर रखना ज़रूर रखना जी“ 
अंकल जी, माफ करना,बात तो सरकार की हो रही थी
सरकार बेचारी साडी लपेटकर,सुहागन बिंदी लगाकर रोटियां सेंकने बैठती है तो ये मेरे बाप के दोस्त चले आते हैं, चोथी रोटी पर मेरा बाप चिल्लाता है “120 नहीं,121 करोड का खाना तैयार करो मां के हाथ पैर फूल जाते हैं चार रोटियों का आटा गुंथता ही है कि मेरे बाप कि आवाज़ आती है “राम दुलारी,122 करोड मां दाल में पानी डालती है कि मेरा बाप फिर चिल्लाता है“राम दुलारी,122 करोड और फिर 124..125...126
अंकल ऐसे में तलाक तो तय है आप भी मानेंगे कि सामने वाली छमकछल्लो भी ऐसे'मिलनसार'आदमी से ‘शादी  करके चार ही दिन इतरा पाएगी,फिर तलाक तो उससे भी होकर ही रहेगा.चाहे कितनी भी चुस्त औरत मेरी मां बन ले,पापा से ‘शाबासी नहीं ले पाएगी. कसूर पापा का भी नहीं,दुनिया में आए हैं तो मिलनसार तो होना ही पडता है.
ऐसे में कोई जब मुझसे पूछता है ”मुन्ना राज़ा,तुम किसके बेटे हो,मम्मी के या पापा के ?“ तो मैं ज़ोर से हंसकर ताली बज़ाता हूं और कहता हूं “मम्मी का,क्योंकि मेरा कोई बाप नहीं है“
लेकिन अंकल,मैं तो ‘शुरू  में ही कह चुका कि दे‘श  के 125 करोड लोगों को  पिता समान मानने को मन तो नहीं करता पर लोग एहसास करा ही देते हैं कि वे मेरे पिता समान ही नहीं बल्कि हैं ही मेरे बाप
अंकल मेरे इन बापों का कुछ हो सकता है? 

                                                                            आपका अपना बच्चा
                                                                             मन का सच्चा
                                                                            अकल का कच्चा
                                                                             - प्रदीप नील

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