शनिवार, 25 अगस्त 2012

दाढ़ी वाली मल्लिका शेरावत

आदरणीय अन्ना अंकल ,
कल राम औतार अखबार ले कर भागा-भागा आया और बोला " मेरी फोटो छपी है, तुमने देखी ?"
मैंने फोटो सुबह ही देख ली थी जिसमें राम औतार गधे पर बैठा था ,गले में जूत्तों की माला और चारों तरफ पुलिस वाले. मुझे तो यह फोटो देखने में ही शरम आ रही थी और इधर यह राम औतार फोटो यूँ दिखा रहा था मानो फोटो ना हो कर  कोई गोल्ड मैडल हो .
मैंने कहा " इस उम्र में तुम्हे यह क्या सूझी राम औतार कि अपनी बेटी की उम्र की लड़की छेड़ दी ?"
राम औतार हंसने लगा " इस अखबार के सम्पादक को नीचा दिखाना था, दिखा दिया ."
मैंने पूछा " उसकी लड़की छेड़ कर ?"
राम औतार फिर हंसा " नहीं यार , उसके अखबार में अपनी फोटो छपवा कर ."
मैं हैरान रह गया , मैंने कहा " फोटो तुम्हारी छपी और नीचा उसने देखा ? मैं कुछ समझा नहीं ."
राम औतार बोला " समझाता हूँ . वैसे तो कहानी बहुत लम्बी है पर सारांश यह कि पिछले महीने मुझे दस लाख रुपयों से भरा एक बैग सडक पर पड़ा  मिला था. मैंने उसके मालिक को ढूंढकर बैग लौटा दिया. तब इस अखबार वाले ने यह समाचार सिर्फ दो लाइनों में छापा था और वे दो लाइनें भी पता है कहाँ ? सातवें  पेज पर खोया-पाया और टेंडर-नोटिस के विज्ञापनों के बीच ."
मैंने कहा " ओह तभी उस समाचार पर मेरी निगाह नहीं पड़ी..."
राम औतार ने कहा " तुम्हारी क्या किसी की नहीं पड़ी . खुद मुझे चश्मा लगा कर वह खबर ढूंढनी पड़ी थी "
मैंने कहा " बहुत बुरी बात है . उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था, बल्कि ऐसी न्यूज़ तो फोटो समेत फ्रंट-पेज पर छापनी थी..."
राम औतार बोला " तुम्हारी कही यही बात जब मैंने सम्पादक से कही तो वो चिढ गया .कहने लगा तू कोई मल्लिका शेरावत है जो तुझे फ्रंट-पेज पर छापूँ ? सातवें पेज पर भी न्यूज़ इसलिए छाप दी कि एक विज्ञापन आना था और वो आया नहीं इसलिए जगह बची हुई थी ."
मैंने पूछा " फिर ? "
राम औतार बोला " मैंने सम्पादक को धमका दिया और कह दिया कि एक दिन ऐसा भी आएगा  जब दाड़ी वाले बदसूरत राम औतार नाम की इस मल्लिका शेरावत की फोटो तू ही छपेगा और वह भी फ्रंट-पेज पर. बस फिर तो वह बहुत चिढ गया और बोला ऐसा इस जन्म  में तो होगा नहीं क्योंकि हमने अखबार बेचना है , बंद नहीं कराना ."
मैंने कहा " चल आज उसको चिढा कर आते हैं कि राम औतार की फोटो तुमने ही ..."
राम औतार बोला " मै वहीँ से आ रहा हूँ . सम्पादक ने न केवल मुझे चाय  पिलाई बल्कि पिछली बातों के लिए माफ़ी भी मांगी ."
मै हैरान रह गया , मैंने कहा " तुमने पूछा नहीं कि अब फोटो कैसे छाप दी ?"
राम औतार हंसा " चाय पीते-पीते पूछा था ."
मैंने डरते-डरते पूछा " सम्पादक क्या बोला ? "
राम औतार बोला " कुछ नहीं यार , सर झुका कर बोला हमने अख़बार बेचना है .."
अब मैं  या आप क्या बोलें अंकल , सम्पादक ने एक लाइन में सब कुछ ही तो कह दिया .
आपका अपना बच्चा
मन का सच्चा,
अक्ल का कच्चा
प्रदीप नील 

कौन ? मैं हूँ मौन !

 आदरणीय अन्ना अंकल,
                  आप इन दिनों मौन धारण किए हुए हैं तो बोलेंगे नहीं . चुपचाप बैठे रहने से टाइम पास नहीं होता . ऐसे में आप आज्ञा दें तो एक कहानी सुनाऊं ? .
 अंकल जी, एक बाबा था बहुत ही ज्ञानी-ध्यानी. पूरा गांव उसकी बहुत कद्र करता था क्योंकि वह तन-मन का सच्चा तो था ही, किसी से कुछ मांगने भी नहीं जाता था . गांव वाले अपनी श्रद्धानुसार जो कुछ भी उसे दे जाते, खा लेता और परमात्मा का भजन करता .
      पांच-सात मुस्टण्डों को लगा कि यह तो बड़े मजे का काम है कि दाढी बढाओ और बाबा की शरण चले जाओ. हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आए . बाबा को कंधों पर उठा कर उसकी जय बोलने लगे.
जय बोलने पर हर कोई फिसल जाता है बेचारा भोला बाबा भी फिसल गया . अब ये चेले तसल्ली देने लगे ” अब देखना बाबा. हम गांव में जाया करेंगे और इतनी भिक्षा मांग लायेंगे कि बड़ा सा मंदिर बना देंगे. आप उसमें मज़े से भक्ति करना. आपकी भक्ति हो जाएगी और पूरे गांव के पापियों का कल्याण भी हो जाएगा.“ 
बाबा को उनके रंग-ढंग कुछ ठीक तो नहीं लगे पर उन्हे चेले बना ही चुका तो करता भी क्या, बेचारा. लेकिन, स्याने बाबा ने एक बात जरूर कही ” सब बातें बेशक भूल जाना मगर इतना जरूर याद रखना कि मैं साल में एक दिन शीर्षासन  लगा कर मौन धारण किया करता हूं. उस दिन दुनिया बेशक इधर से उधर हो जाए लेकिन  मैं किसी से कोई बात नहीं करूंगा .“
मुस्टण्डों ने इस बात को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल भी दिया और गांव में जा कर धर्म के नाम पर चंदा इकट्ठा करने लगे. गांव ने पूरा सहयोग दिया और बाबा के साथ उनकी जय भी बोली जाने लगी . लेकिन अंकल, स्यानों ने सही कहा है कि पेट और जेब दोनों भर जायें तो उसके बाद हर किसी का काण्ड करने का मन होता है .
बस फिर वही हुआ और उनमें से एक मुस्टण्डे ने गांव में घोषणा कर दी कि मंदिर-वंदिर छोड़ो, इस चंदे से हम दूकान खोलेंगे और दूकान से मुनाफा आएगा उससे मंदिर भी बनवा देंगे . अब तो पूरा गांव क्रोधित हो कर उनके पीछे और मुस्टण्डे बाबा की तरफ भागे जायें . मुस्टण्डे यह सोच कर कि बाबा के कहने से शायद  गांव वाले उनकी बात मान लें . बाबा ने दूर से देखा, माज़रा समझा और चिमटा गाड़ कर शीर्षासन  लगा गया.
अब चेले दूर खड़े-खड़े देखें  कि बाबा बचाएगा लेकिन बाबा तो मौन धारण कर चुका था .
नतीजा यह हुआ कि मुस्टण्डों की गांव वालों ने बहुत भर्तसना की और घोषणा  कर दी कि ये चेले कोई भक्त नहीं बल्कि व्यापारी ही निकले . हां, बाबा जरूर बाबा ही है .
इससे आगे की कहानी तब सुनाऊंगा जब आप फिर कभी मौन धारण करेंगे . बुरा न मानें तो एक बात पूछूं  अंकल जी, उस बाबा का मौन धारण करना तो मुझे समझ आता है लेकिन यह नहीं समझ आता कि आप बार-बार किस बात पर मौन धारण कर जाते हैं ?
अब मौन खत्म करो तो अगली कहानी आप सुनाना, अंकल. हम बच्चों को बड़ों को कहानी सुनाने में उतना मज़ा नहीं आता जितना उनसे सुनने में आता है .
सुनाओगे न अंकल ?
आपका अपना बच्चा,
मन का सच्चा,
अकल का कच्चा
--- प्रदीप नील

भगवां वस्त्रों की महिमा


  आदरणीय अन्ना अंकल,
हमारा पड़ौसी राम औतार बहुत गंदा है . हमेशा  तेरहवीं बात करता है .
कल कहने लगा ” जी तो करता है कि बम ले कर सारे स्कूल-कालेज तबाह कर दूं .“ 
उसकी यह बात सुन कर मेरी ऊपर की सांस ऊपर रह गई और नीचे की नीचे. मैंने कहा ”होश में तो हो जो सरस्वती के मंदिरों को गिराने की बात कर रहे हो ? तुम्हे शर्म आनी चाहिए .“
राम औतार हंसने लगा, बोला ”शर्म तो आनी चाहिए इन स्कूल-कालेजों को जो नकली विषय  पढा कर बेरोजगारों  की फौज़ पैदा कर रहे हैं . बाद में ये बच्चे पैंट-शर्ट पहनना सीख जाते हैं और शर्म के मारे इनसे मज़दूरी भी नहीं होती. फिर ये सारी उम्र भूख मरते हैं और सरकार तथा देश  को कोसते हैं “
अंकल जी, उसने वर्तमान की तस्वीर तो सही खींची थी इसलिए मैं भी सोच में डूब गया . जब कुछ भी फैसला नहीं कर पाया तो मैंने राम औतार से पूछा ”तो तुम्हारे हिसाब से क्या होना चाहिए ?“ 
राम औतार कहने लगा ”ऐसी पढाई होनी चाहिए कि बच्चा मात्र दस साल में करोड़पति होना सीख जाए .“
मैंने चिल्ला कर कहा ” आ गया न अपनी दो पैसे वाली  टुच्ची औकात पर . अब तुम पांच-सात नेताओं के नाम गिना कर बताओगे कि फलां नेता पहले सब्जी बेचता था, और फलां नेता ...“
राम औतार ने बात काटते हुए कहा था ”बिलकुल नहीं. खादी वाली  नेतागिरी के इस धंधें में आजकल पैसा कम है, बदनामी ज्यादा . मैं तो वो विषय  बता रहा था जिसमें पैसा भी है और इज़्ज़त भी .यानि, भगवां वस्त्रों में नेतागिरी.  इसके लिए  करना सिर्फ इतना है कि चारों तरफ गुरूकुल खुलें और उनमें प्राचीन वेद-शास्त्रों का ज्ञान दिया जाए तो हर छात्र करोड़पति हो सकता है .बस शर्त सिर्फ इतनी है कि वह इतना बडबोला हो कि अपनी बात नीचे न पड़ने दे, बीए या एमबीए किए बिना भी चीज़ें बेच सकता हो , देश  की हर समस्या के लिए नेताओं को जिम्मेवार ठहरा सकता हो और उसे भगवां पहनना अच्छा लगता हो .“
मैंने पूछा ” आप भगवां वस्त्रों पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं ? मैंने तो सुना है कि ये वस्त्र पहन कर पैसा कमाना तो दूर, खुद अपना राज-पाट तक छोड़ने का मन करने लगता है“.i
राम औतार गुस्से हो गया ” किससे सुना है, गधा कहीं का ! कितने ही बाबा -बाबियां हैं देश  में जो लोगों को मोह-माया से दूर रहने का उपदेश  दे कर ही करोड़पति हो गए .तुम्हारी आंखें हैं कि बटन ?“
मैंने हाथ जोड़े ” सही कह रहे हो, मालिक . सब समझ आ गया लेकिन इतना नहीं समझ पाया कि भगवां किस लिए..?“
राम औतार कहने लगा ” भगवां वस्त्र संसार का आठवां आश्चर्य  है क्योंकि, रोज ही देश  के किसी न किसी हिस्से  में भगवां वालों की पोल खुल रही है फिर भी इसके प्रति लोगों का सम्मान खत्म नहीं होता. और फिर ये  दिव्य-वस्त्र हैं ही इतने सुविधाजनक कि पूछो मत . जब तक चेलों के सामने अकड़ बनी रहे, इन्हे सजाए रखो लेकिन जान बचाने के लिए दूसरे वस्त्र पहनने हों तब इन्हे उतार फैंकने में भी मात्र  एक ही सेकिण्ड लगता है .“
अंकल जी, राम औतार की बात सुन कर मेरे दिमाग ने तो काम करना ही बंद कर दिया है . अब आप ही बताईये उसकी बात ठीक है या गलत ?
आपका अपना बच्चा,
मन का सच्चा,
अकल का कच्चा
- प्रदीप नील 


गुरुवार, 23 अगस्त 2012

बहू लायेंगे इंग्लैंड से

  आदरणीय अन्ना अंकल,
  बेटी बचाओ के नारों के इस दौर में एक नारे ने मेरी नींद हराम कर रखी है . यह नारा लगभग हर मंच से गूंजने लगा है ”बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे ?“
 देखने में यह नारा बेटियां बचाने के पक्ष में लगता है जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं . इसमें चिंता बेटी बचाने को ले कर नहीं बल्कि अपने लाड़ले के लिए बहू लाने  को ले कर है कि बेटियां अगर नहीं बचाई गई तो आपके बेटे रण्डुए रह जायेंगे और आपने दहेज़ में एक किलो सोना और कार लेने का या बाद में बहू को जला कर आनन्द लेने का जो सपना देख रखा है, वह अधूरा रह जाएगा. कोई माने या न माने, लेकिन नारा साफ कह रहा है कि और लोगों  को बेटियां बचानी ही चाहिए ताकि हमारे  बेटे को बहू आसानी से मिल जाए. क्योंकि भारत ने अभी इतनी तरक्की तो की नहीं कि कोई अपनी ही बेटी को बहू बना ले .तो मतलब साफ है कि ये नारा यह नहीं कहता कि बेटियां हम बचाएं बल्कि यह सुझाव दे रहा है कि जहाँ हमारे बेटे का रिश्ता  हो सकता है, वे परिवार बेटियां बचाएं ताकि हम बहू ले आएं  . यानि, कुला जामा  बात तो यह हुई कि सारा मामला बहुओं को बचाने का है, बेटियों को बचाने का नहीं . शायद  इसी बात पर गालिब ने कहा था :
  ” वो कहते हैं मेरे भले की
    लेकिन बुरी तरह “
दूसरी बात ये कि यह नारा चुनौती देता है कि बहू कहां से लाओगे ? चुनौती जब भी कोई देता है, हम भारतवासी आगे बढ कर स्वीकार कर लेते हैं. सारे भारतवासी न सही हमारा पड़ौसी राम दुलारे तो स्वीकार कर ही लेता है. कल ही हमारे मोहल्ले के मंच से नारा गूंजा ” बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे ?“ राम दुलारे तुरंत चिल्लाया ” बिहार से, बंगाल से, उड़ीसा से . और अब तो इंटरनेट, फेसबुक का ज़माना है तो चैटिंग-सैटिंग करके पोलैंड  या होलैंड  से भी ले आयेंगे .“
मंच-संचालक को राम दुलारे का जवाब बहुत बुरा लगा . लेकिन राम दुलारे समझाने लगा कि इसी सवाल को ऐसे पूछो ”बहुएं नहीं बचाओगे तो बेटी कहां से लाओगे? यानी, पहले बहुओं को तो बचाना सीख लो , बेटियाँ तो खुद हो जायेंगी .
  इस बात पर भीड़ में बैठी कुछ सास टाइप औरतें नाराज़ हो गई कि यह मुआ भी ज़ोरू का गुलाम निकला ! कोई हम बूढियों का पक्ष भी तो ले, सास को बचाने की बात क्यों नहीं कहते, हरामियो ?
तब से बेचारा मंच-संचालक अपना सर पकड़े बैठा है कि बेटियां बचाने के लिए वह क्या नारा लगाए ? इतना तो वह भी जानता है कि बेटियां नारे लगाने या उनकी घुड़चढी करवा देने से नहीं बचती . खुद जब वह पिछले साल अपनी पत्नी को मैटरनिटी होम ले कर जा रहा था तो उसकी मां ने कहा था ” चांद सा बेटा ले कर आना . ईंट-पत्थर मत ले आना .“
ऐसे में आप ही हमारी मदद कर सकते हैं यह समझा कर कि बेटियां ईंट-पत्थर  नहीं होती बल्कि वे  तो छुई-मुई का पौधा होती हैं जिन्हे खाद-पानी और खुला आसमान तो चाहिए ही, अनचाहे स्पर्श  से भी दूर रखे जाने की भी वे मांग करती हैं .
आपका अपना बच्चा,
मन का सच्चा,
अकल का कच्चा
- प्रदीप नील 

शनिवार, 18 अगस्त 2012

फव्वारा चौक का अन्ना ?

     

आदरणीय अन्ना अंकल,
                  आपने भ्रष्टाचार  के खिलाफ जो आंदोलन छेड़ा उसका नतीज़ा यह हुआ कि आम आदमी अब सिर्फ नेताओं और कर्मचारियों को चोर मानने लगा है और उसे अपनी कोई भी कमी नज़र नहीं आती.
 अब  देखो न अंकल , औसत दूधिया दोनों समय पानी मिला कर दूध बेचता है और फिर भी  यह दावा करता है कि वह तो किसी तरह बच्चों का पेट पाल रहा है. इन नेताओं को देखो ना जो करोड़ों खा गए. बिल्कुल यही बात बिजली और पानी की चोरी करने वाला सोचता है और यही बात वह भी कहने लगा है जो नकली घी बनाता है या सोने में पीतल मिलाता है . किसी का बिना हैल्मेट के चालान कटने लगता है तो उसकी यही दलील होती है कि पुलिस वाले खुद तो हैल्मेट पहनते नहीं और हमारा चालान काटते हैं . यानि हर चोर अब नेताओं को चोर बता कर खुद को सही ठहराने  लगा है .
 अंकल जी, आप तो हमें शायद  यह सिखा रहे थे कि शराब  से कीड़े मर जाते है़ं इसलिए यह हानिकारक है जबकि हमने यह समझा कि शराब अच्छी चीज़ है जिसे पीने से पेट के कीड़े मर जाते हैं . आप को लगता नहीं कि आप कैसे-कैसे  चेलों के गुरू हो गए ?
इससे भी बड़ी बात तो यह अंकल जी, कि हम लोगों की नज़दीक की नज़र बहुत  कमज़ोर हो गई है और दूर की बहुत तेज.  हमें दिल्ली के राम लीला मैदान में खड़ा अन्ना तो दिखता है लेकिन मेरे अपने  शहर  के फव्वारा चौक पर खड़ा रहने वाला अन्ना नहीं दिखता . यह अन्ना ना तो खादी पहनता है और ना  गांधी टोपी ही  बल्कि पुलिस की वर्दी में  हर समय हैल्मेट पहने खड़ा रहने वाला हमारे शहर  का ट्रेफिक-इंचार्ज़ देवा सिंह है.  लेकिन हम इतने बेशर्म  हो चुके हैं कि हेलमेट लगाए धरती पर खड़े उस देवा सिंह के  पास से बिना हैल्मेट लगाए बाईक पर गुजरते रहते हैं और एक पल भी नहीं सोचते कि खाकी वर्दी वाला यह आदमी सारा दिन हैल्मेट क्यों पहने रहता है और तब भी जब वह बाईक पर नहीं होता  बल्कि चौक पर  खड़ा होता है ? इसके हाथ में लाठी नहीं है इसलिए हम इसे पुलिस वाला नहीं मानते और इसने गांधी टोपी नहीं पहनी इसलिए हम इसे अन्ना भी नहीं मानते. हम अन्ना का भक्त उसी को मानने लगे हैं जो कुछ भी करे लेकिन टोपी लगा ले जिस पर लिखा हो ” मैं भी अन्ना “ लेकिन यह बात हम बेवकूफों को कौन समझाए कि अन्ना तो मन से अन्ना होता है उसने चाहे गांधी टोपी पहन रखी हो या हैल्मेट .
खाकी वर्दी में कहते हैं बहुत नशा  होता है लेकिन इस इंस्पेक्टर को देख कर यह बात झूठ लगती है .यह नशे की बजाए प्रेरणा से लोगों को समझाना चाहता है . लेकिन हम जूत्ते से समझने वाले लोग....
कल को यही देवा सिंह पुलिसिया लाठी उठा कर खड़ा हो जाए कि आओ मेरे प्यारो आज देखता हूं कौन मेरे पास से बिना हैल्मेट लगाए गुजरता है ? तब क्या होगा ? लोग या तो रास्ता बदल जायेंगे या हैल्मेट लगा कर ही उधर से गुजरेंगे .लेकिन वही दलील फिर भी देंगे कि नेता तो देश  को लूट के खा गए उनका कोई पुलिस वाला  कुछ बिगाड़ता नहीं, हमने क्या अपराध किया है , एक छोटा सा हैल्मेट ही तो नहीं पहना .अंकल जी, आप को लगता नहीं कि आप कैसे-कैसे भक्तों के देवता हो गए ? 
आपका अपना बच्चा,
मन का सच्चा,
अकल का कच्चा
--- प्रदीप नील

रविवार, 10 जून 2012

सुनो अन्ना,
                         मन डोले, मेरा तन डोले

आदरणीय अन्ना अंकल,
  कल मैं भक्तों के हाथों और लातों बुरी तरह पिटा .पर अब सोचता हूं कि गलती तो मेरी ही थी.
असल में हुआ यूं, अंकल जी कि हमारे महल्ले में भजन-कीर्तन का आयोजन हो रहा था . अब थोडे़ बहुत पाप मैं भी कर लेता हूं इसलिए सुधरने के लिए वहां चला गया और पूरी श्रद्धा सहित हाथ जोड़ कर बैठ गया .मंच पर एक बहुत ही सुंदर गायिका प्रकट हो गई तब भी मैंने अपनी आंखें कस कर बंद रखी और परमात्मा में ध्यान लगाने की कोषिष करने लगा .गायिका ने आलाप लिया और गाना षुरू कर दिया ”भोले न्यूं बोले, षिवजी न्यूं बोले... “
और मेरी आंखें खुल गई कि यह तो ” मन डोले, मेरा तन डोले..“ की धुन है .सभी भक्त झूम रहे थे पर मेरा ध्यान गायिका के षब्दों पर लग ही नहीं पा रहा था पुरानी फिल्म ”नागिन“ का मन डोले... गीत याद आ रहा था .
और मैं खड़ा हो गया . मैंने कहा ” आप हमें पाप से दूर ले जाने के लिए भजन गा रही हैं .और खुद धुन चोरी कर रही हैं .क्या सिखाएंगी आप हमें ?“
नतीज़ा यह हुआ कि भजन भूल कर गायिका सन्न खडी़ रह गई .चारों तरफ षोर मच गया . कोई मुझे नषेडी़ कह रहा था, कोई कह था कि रावण का वंषज है जो भक्ति में विघ्न डालने आ गया .और भजन-मंडली का सोचना था कि आजकल सारे ऐसे ही तो गाते हैं और मुझे ज़रूर ही उनके प्रतिद्वंदी ने भेजा है कढी बिगाड़्ने के लिए .बस माईक से एक ही षब्द आया ”मारो“
अंकल जी, अपने देष में ” मारो “ कहने की तो ज़रूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि भीड़ में घुस कर मारना तो हमारा मुख्य-धंधा है .तब आपके इस बच्चे की क्या हालत हुई होगी, आप सोच ही सकते हैं .
वैसे अब मुझे अपनी गलती समझ आ रही है . मुझे चाहिए तो यह था कि एक आंख बंद करके मुण्डी हिलाता रहता और भजन को सुनता या देखता रहता . कितना पुण्य मिलता ! पर मुझसे ऐसा नहीं हो पाया इसलिए वहीं पिट गया और पाप की सज़ा पा गया .
अंकल जी, अब भजन-कीर्तन में जाने से डरने लगा हूं .क्या आप थोड़ा पिघला हुआ षीषा भिजवा देंगे ? इसे मैं अपने कानों में भरवा लेना चाहता हूं .
आपका अपना बच्चा,
मन का सच्चा,
अकल का कच्चा
- प्रदीप नील

रविवार, 15 अप्रैल 2012

अपनी- अपनी गरीबी रेखा

                                                                अपनी- अपनी गरीबी रेखा

आदरणीय अन्ना अंकल,
मेरा एक मित्र है राम औतार . करोड़पति है, कोठी -कार और सब सुविधाएं उसके पास हैं लेकिन चाय पीने का मन होने के बावज़ूद जेब से पांच रूपए नहीं निकालना चाहता और तलाश  में रहता है कि कब उसे कोई चाय-बीडी़ पिलाने वाला मिले . ऐसे में मैं उसकी औकत मात्र पांच रूपए ही समझता हूं और चाहता हूं कि मेरा वह मित्र अपने आप को गरीबी रेखा से नीचे मान ले लेकिन मित्र है कि उसे अपने आप के करोड़पति होने का घमण्ड रहता है . मैं सरकार होता तो उसे यकीनन ही गरीबी रेखा से नीचे रखता और वह इस बात पर मुझे कोसता. यानि सरकार की फज़ीहत तो तय है .
 मेरा दूसरा मित्र राम खिलावन झोंपडे़ में रहता है .दाने-दाने का मोहताज़ है लेकिन घर में दो मोबाइल फोन हैं और हर शाम  देसी शराब  का अद्धा पता नहीं कैसे उसके पास आ जाता है . उसे दुख है कि उसके पास साईकिल ही क्यों है , बाईक क्यों नहीं ?  वह चाहता है कि उसे गरीबी रेखा से नीचे मान लिया जाए और सरकार उसके आठों बच्चों को पाले . मैं सरकार होता तो उसे गरीबी रेखा से ऊपर मानता . जिसके घर में केबल टी वी हो, दो मोबाइल हों ,हर शाम  शराब  का जुगाड़ हो और जो  आदमी बेचारी सरकार तक को अपने बच्चों की आया बनाने के सपने देखता हो उसे गरीबी रेखा से नीचे रखना तो रेखा की बेइज़्ज़ती होती .ऐसे में मैं सरकार होता तो यकीनन ही राम खिलावन मुझे गालियां देता . यानि, सरकार की फज़ीहत तो तय है .
सच तो यह है कि इस गरीबी रेखा की शक्ल  जिसने बिगाड. रखी है वह औरत हमारे महल्ले में रहती है . कुछ साल पहले जनगणना हुई थी तो पता चला था कि वह हर सेकिण्ड एक बच्चे को ज़न्म दे डालती है . अब मुझे पूरा यकीन है कि वही औरत आज़कल हर सेकिण्ड तीन नहीं तो कम से कम दो या डेढ बच्चे तो ज़रूर ही पैदा करने लगी है .
और उस औरत के सामने बेचारी सरकार मुझे तो सातवीं क्लास को पढाने वाली ड्राइंग भैंजी लगती है . भैंजी बेचारी ब्लैक-बोर्ड की तरफ मुंह करके गरीब बच्चों के चारों तरफ गरीबी रेखा खींच रही होती है कि पीछे से वह औरत दो बच्चे उसे रेखा के पास गिरा कर ताली बजा कर हंसती है और मज़ाक उड़ाने लगती है कि ऐसी औरत को किसने भैंजी लगा दिया जिसे सही रेखा ही नहीं खींचनी आती .भैंजी हैरान-परेशान  होकर वह रेखा मिटाकर दूसरी बना ही रही होती है कि वह औरत पांच बच्चे फैंक कर भैंजी को मूर्ख साबित कर देती है . यानि, सरकार की फज़ीहत तो तय है .
लोग सरकार की बनाई गरीबी रेखा से खुश   नहीं होते और हरेक को शिकायत  बनी रहती है .
 जिस तरह जितने मुंह उतनी बातें, उसी तरह जितने लोग उतनी ही गरीबी रेखाएं . ऊपर से दिक्कत यह कि आज़कल लोग मुंह भी दो-तीन रखने लेगे हैं .ऐसे में क्या हो सकता है ?  यानि, सरकार की फज़ीहत तो तय है .


आपका अपना बच्चा,
मन  का सच्चा,

अकल का कच्चा

- प्रदीप नील