आदरणीय अन्ना अंकल,
मैं “व्यापारी और बंदर“ कहानी पढ रहा था तो मुझे लगा कि ऐसी कहानी तो मैं भी लिख सकता हूं. लेकिन अंकल जी, यह कहानी इतनी मुश्किल निकली कि मैं उलझ गया और आपकी मदद चाहिए.
मेरी कहानी में भी वही व्यापारी टोपियां लिए जा रहा था,रास्ते में पेड के नीचे बैठा और सो गया था.नींद खुली तो पाया कि उसकी पोटली तो वहीं थी,लेकिन टोपियाँ गायब. उसने “हे भगवान !“कहकर ऊपर देखा तो चौंका क्योंकि उसी पेड पर बहुत सारे बंदर बैठे थे.बंदर टोपियां ओढ कर इतरा रहे थे, आत्म-मुग्ध हो रहे थे और कोई कोई तो एक दूसरे की फोटो भी खींच रहे थे, अखबार में छपवाने के लिए.
व्यापारी समझाने लगा,“बेटा ये टोपियां इज़्ज़तदार लोगों के लिए ले जा रहा था,तुम नकलची बंदरों के ये किसी काम की नहीं हैं.“
बंदर खी खी करके हंसने और व्यापारी को चिढाने लगे. व्यापारी फिर समझाने लगा,“ भाईयो,पहले इन्हे ओढने के लायक बन कर आओ,फिर पहनना.ये सिर्फ ”इन्सानों के लिए हैं“
बंदर बुरा मान गए कि विज्ञान तो हमें इन्सानों का पूर्वज बताता है और यह व्यापारी हमें इन्सान ही नहीं मान रहा. अब तो इसे टोपियां बिल्कुल नहीं लौटायेंगे.“
अंकल जी, पुरानी कहानी में तो व्यापारी समझदार था और बंदर मूर्ख. उसने अपनी टोपी उतार कर फैंकी तो नकलची बंदरों ने भी अपनी अपनी टोपी उतार कर फैंक दी थी.लेकिन मैं अटक गया हूं क्योंकि मेरी कहानी का व्यापारी इतना समझदार नहीं है जबकि बंदर बहुत ही धूर्त
हैं.वे इस फिराक में हैं कि कब व्यापारी अपनी टोपी उतार कर फैंके और वे उसे भी उठा ले जाएं.
अंकल जी,व्यापारी की मदद करके कहानी पूरी करवा दें. व्यापारी को टोपियां वापिस न मिल पाए तो भी चलेगा लेकिन कहानी का अंत ऐसा हो कि टोपियों की गरिमा बनी रहे.कम से कम इतनी ज़रूर कि ये टोपियां इसके सिर से उसके सिर न हो जाएं.
आपका अपना बच्चा
मन का सच्चा
अकल का कच्चा
प्रदीप नील
मैं “व्यापारी और बंदर“ कहानी पढ रहा था तो मुझे लगा कि ऐसी कहानी तो मैं भी लिख सकता हूं. लेकिन अंकल जी, यह कहानी इतनी मुश्किल निकली कि मैं उलझ गया और आपकी मदद चाहिए.
मेरी कहानी में भी वही व्यापारी टोपियां लिए जा रहा था,रास्ते में पेड के नीचे बैठा और सो गया था.नींद खुली तो पाया कि उसकी पोटली तो वहीं थी,लेकिन टोपियाँ गायब. उसने “हे भगवान !“कहकर ऊपर देखा तो चौंका क्योंकि उसी पेड पर बहुत सारे बंदर बैठे थे.बंदर टोपियां ओढ कर इतरा रहे थे, आत्म-मुग्ध हो रहे थे और कोई कोई तो एक दूसरे की फोटो भी खींच रहे थे, अखबार में छपवाने के लिए.
व्यापारी समझाने लगा,“बेटा ये टोपियां इज़्ज़तदार लोगों के लिए ले जा रहा था,तुम नकलची बंदरों के ये किसी काम की नहीं हैं.“
बंदर खी खी करके हंसने और व्यापारी को चिढाने लगे. व्यापारी फिर समझाने लगा,“ भाईयो,पहले इन्हे ओढने के लायक बन कर आओ,फिर पहनना.ये सिर्फ ”इन्सानों के लिए हैं“
बंदर बुरा मान गए कि विज्ञान तो हमें इन्सानों का पूर्वज बताता है और यह व्यापारी हमें इन्सान ही नहीं मान रहा. अब तो इसे टोपियां बिल्कुल नहीं लौटायेंगे.“
अंकल जी, पुरानी कहानी में तो व्यापारी समझदार था और बंदर मूर्ख. उसने अपनी टोपी उतार कर फैंकी तो नकलची बंदरों ने भी अपनी अपनी टोपी उतार कर फैंक दी थी.लेकिन मैं अटक गया हूं क्योंकि मेरी कहानी का व्यापारी इतना समझदार नहीं है जबकि बंदर बहुत ही धूर्त
हैं.वे इस फिराक में हैं कि कब व्यापारी अपनी टोपी उतार कर फैंके और वे उसे भी उठा ले जाएं.
अंकल जी,व्यापारी की मदद करके कहानी पूरी करवा दें. व्यापारी को टोपियां वापिस न मिल पाए तो भी चलेगा लेकिन कहानी का अंत ऐसा हो कि टोपियों की गरिमा बनी रहे.कम से कम इतनी ज़रूर कि ये टोपियां इसके सिर से उसके सिर न हो जाएं.
आपका अपना बच्चा
मन का सच्चा
अकल का कच्चा
प्रदीप नील
एकदम सही पत्र लिखा है!
जवाब देंहटाएंबस अन्ना अंकल इसे पढ़ ले तो समझ जायेंगे!
प्रिय शरद जी
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ कि आपने समय निकाल कर रचना देखी और टिपण्णी देकर उत्साह बढ़ाया
कृपया ब्लॉग पर आते रहिएगा
धन्यवाद्
प्रदीप नील
सच है बंदर बहुत धूर्त है। तभी ना साठ साल से देश को लूट रहे हैं।
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